Thursday 30 April 2020

बेहतरीन Tribute शेर



दोस्तों मिलना हो या बिछड़ना, ज़िंदगी हो या मौत एक जज़्बाती दिल अक्सर शेर-ओ-शायरी में पनाह ढूंढता हैं | आज मैं इस पोस्ट में कुछ शायरों के ऐसे शेर पेश कर रहा हुँ जो किसी के गुज़र जाने पे अक्सर याद आ जाते है -






- ट्रिब्यूट शेर -

 

        

- परवीन शाकिर -        

                         

 एक सूरज था जो तारों के घराने से उठा        
 आँख हैरान है क्या शख्स ज़माने उठा     

                                        

- रहमान फ़ारीज़ -             

         

कहानी ख़त्म हुई और ऐसे ख़त्म हुई
के लोग रोने लगे तालियां बजाते हुई
                    

- जावेद अख्तर -       

                                

 नेकी एक दिन काम आती है हमको क्या समझाते हो
 हमने बेबस मरते देखे कैसे प्यारे प्यारे लोग
                                                                        


- शायर जमाली -

 

तुम आसमां की बुलंदी से जल्द लौट आना
हमें जमीं की हकीकत पे बात करनी है

        

- बशीर बद्र -                 

                                     

वो अब वहाँ है जहाँ रास्ते नहीं जाते
मैं जिसके साथ यहाँ पिछले साल आया था

                                           

- गुमनाम -                

  

 ना हाथ थाम सके ना पकड़ सके दामन  
 बहुत करीब से उठकर चले गया कोई        
                                                                                                                       

- अहमद अमेठवी -

 

जिंदगी है अपने कब्ज़े में न अपने बस में मौत
आदमी मजबूर है और किस कदर मजबूर  है

       

- परवीन शाकिर -  

 

तमाम रात मेरे घर का एक दर खुला रहा
मैं राह देखती रही वो रास्ता बदल गया



- अनवर जलालपूरी -

 

 शाम ढले हर पंछी  को घर जाना पड़ता है
 कौन ख़ुशी से मरता है मर जाना पड़ता है

  

- अदनान मोहसीन - 

      

 किसी के कदमों रास्ते लिपट के रोया किये          
 किसी के मौत पे खुद मौत हाथ मलते रही   

        

- रईस फ़रोग़ -      


                           
लोग अच्छे है बहुत दिल में उतर जाते है
एक बुराई है तो बस ये है के मर जाते है

  

-बशीर बद्र -   

                              

 वो जिनके जिक्र से रगों  में दौड़ती थी बिजलियाँ
 उन्हीं  का हाथ हमने छू कर देखा कितना सर्द  है


- अख़्तर नज़्मी -     

                                                      - 

 अब नहीं लौट के आने वाला
 दर खुला छोड़ के जाने वाला

      

  - ग़ुमनाम - 

 

ख़ुदा  जाने ये कैसी जल्वा-गाह-ए -नाज़ है दुनियां           
हज़ारों उठ गए अब तक वहीं रौनक़  है महफ़िल में                                           

 

- जॉन एलिया -

 

उस गली ने ये सुनके सब्र किया  
 जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं     

  

- साकिब लखनवी -              

 

ज़माना  बड़े शौक से सुन रहा था       
हमीं सो गए दास्ताँ कहते कहते   


- राहत इंदौरी-       

                                                                                           

 दो गज़ सही मगर ये मेरी मिलकियत तो है
 ऐ मौत तूने मुझको ज़मीदार कर दिया


          

- कैफ़  भोपाली -  

                                         

माँ की आग़ोश में कल मौत की आग़ोश में आज               
हम को दुनिया में ये दो वक़्त सुहाने से मिले        
          

                                          

- खालिद शरीफ़ - 

 

बिछड़ा कुछ इस तरह से ही रूत ही बदल गयी
 एक शख़्स सारे शहर को वीरान कर गया



- गुमनाम - 

 

मौत ओ  हयात आँख मिचौली का खेल                                
हम अगर छुप गए तो आपसे ढूंढा न जायेगा           
                               

                                                                      
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शब्दकोश:                हयात - Life, Existence,   जल्वा-गाह-ए -नाज़ - Theatre, Place of Display,  
  मिलकियत - Property, Possession,
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Sunday 26 April 2020

Jaun Elia (Ghazal)




ये यकीं मानिये कि आप बहुत ही चुनिंदा लोगों में से होंगे अगर आपने अब तक जॉन एलिया का नाम नहीं सुना | जॉन साहब शायद मौजूदा वक्त के  ट्रेंडिंग शायरों में सबसे ज्यादा मशहूर हैं | जॉन के शेर तो लाजवाब है ही और साथ में उनका शेर कहने का अंदाज़ भी सबसे हटकर हैं | शायरी से लेकर ज़िंदगी तक में खुद को बर्बाद करने की बात करने वाले जॉन के शेर सीधे दिल में चोट करते हैं | जॉन साहब का एक शेर हैं जोकि मुझे बहुत  पसंद हैं -

मैं  उसी तरह तो बहलता हूँ 
और सब जिस तरह बहलते हैं 
क्या तक्कलुफ़ करे ये कहने में 
जो भी ख़ुश हैं हम उनसे जलते हैं 

आज आज मैं इस पोस्ट में जॉन के कुछ नायाब ग़ज़ल आपके सामने पेश कर रहा हूँ - 







"कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे''




कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे

शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं
मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे

वो जो न आने वाला है ना उस से मुझ को मतलब था
आने वालों से क्या मतलब आते हैं आते होंगे

उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा
यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे

यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उस की क़यामत बाँहों का
वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे

मेरा साँस उखड़ते ही सब बैन करेंगे रोएँगे
या'नी मेरे बा'द भी या'नी साँस लिए जाते होंगे

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- अपने सब यार काम कर रहे हैं -



अपने सब यार काम कर रहे हैं 
और हम हैं की नाम कर रहे हैं 

तेग़-बाज़ी का शौक अपनी जगह 
आप तो क़त्ल-ए-आम कर रहे हैं 

हम हैं मशरूफ़-ए-इंतज़ाम मगर 
जाने क्या इंतिज़ाम कर रहे हैं 

हैं वो बेचारगी का हाल कि हम 
हर किसी को सलाम कर रहे हैं 

एक कत्तला चाहिए हम को 
हम ये एलान-ए-आम कर रहे हैं 

उसके होंटो पे रख के होंठ अपने 
बात ही हम तमाम कर रहे हैं 

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- गाहे गाहे बस अब यही हो क्या -


गाहे गाहे बस अब यही हो क्या 
तुम से मिलकर बहुत ख़ुशी हो क्या 

मिल रहीं हो बड़े तपाक के साथ 
मुझ को यकसर भुला चुकी हो क्या 

बस मुझे यूँही इक ख़्याल आया 
सोचती हो तो सोचती हो क्या 

अब मेरी कोई ज़िंदगी ही नहीं 
अब भी  तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या 

क्या कहाँ इश्क़ ज़ावेदनी हैं !
आख़री बार मिल रहीं हो क्या 

मेरे सब तंज़ बे-असर ही रहे 
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या 


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- सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई -


सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई 
क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई 

हाँ ठीक हैं मैं आपकी अना का मरीज़ हूँ 
आख़िर मेरे मिज़ाज़ में क्यूँ  दख़्ल दे कोई 

ऐ शख़्स अब तो मुझको सब कुछ क़ुबूल हैं 
ये भी क़ुबूल हैं कि तुझे छीन ले कोई 

एक शख़्स कर रहा हैं अभी तक वफ़ा का ज़िक्र 
क़ाश उस ज़बां-दराज़ का मुँह नोच ले कोई   



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Dushyant Kumar ( Ghazal )



आज इस पोस्ट में मैं इनकी कुछ फेमस और मेरी पसंदीदा गज़ले पेश कर रहा हुँ -


    - तू किसी रेल सी गुजरती है-


    मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
    वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ

    एक जंगल है तेरी आँखों में
    मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ

    तू किसी रेल सी गुज़रती है
    मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ

    हर तरफ़ ए'तिराज़ होता है
    मैं अगर रौशनी में आता हूँ

    एक बाज़ू उखड़ गया जब से
    और ज़ियादा वज़न उठाता हूँ

    मैं तुझे भूलने की कोशिश में
    आज कितने क़रीब पाता हूँ

    कौन ये फ़ासला निभाएगा
    मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ

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Rajesh Reddy ( Ghazal )





आज इस पोस्ट में मैं आपके इनकी कुछ ग़ज़लों से तार्रुफ़ कराऊंगा -
   
 
-यूँ देखिए तो आँधी में बस एक  शजर गया-



यूँ देखिए तो आँधी में बस एक शजर गया
लेकिन न जाने कितने परिंदों का घर गया

जैसे ग़लत पते पे चला आए कोई शख़्स
सुख ऐसे मेरे दर पे रुका और गुज़र गया

मैं ही सबब था अब के भी अपनी शिकस्त का
इल्ज़ाम अब की बार भी क़िस्मत के सर गया

अर्से से दिल ने की नहीं सच बोलने की ज़िद 
हैरान हुँ मैं कैसे ये बच्चा सुधर गया 

उनसे सुहानी शाम का चर्चा न कीजिये 
जिनके सरों  पे धुप का मौसम ठहर गया 

 जीने की कोशिशों के नतीजे में बारहा 
महसूस ये हुआ की मैं कुछ और मर गया 

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हर शख़्स हर पल हादसा होने से डरता है

 

यहाँ हर शख़्स हर पल हादसा होने से डरता है
खिलौना है जो मिट्टी का फ़ना होने से डरता है
 
मिरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है
 
बस में ज़िंदगी उस के क़ाबू मौत पर उस का
मगर इंसान फिर भी कब ख़ुदा होने से डरता है
 
अजब ये ज़िंदगी की क़ैद है दुनिया का हर इंसाँ
रिहाई माँगता है और रिहा होने से डरता है
 

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जाने कितनी उड़ान बाकी है ! इस परिंदे में जान बाकी है !! जितनी बाटनी थी,बट चुकी ये जमी ! अब तो बस आसमान बाकी है !! अब वो दुनिया अजीब लगती है ! जिसमे अमनो-अमन बाकी है !! इम्तिहा से गुजर के क्या देखा ! एक नया इम्तहान बाकी है !! सर कलम होंगे कल यहाँ उनके ! जिनके मुह में जुबान बाकी है !!

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omerajesh-reddy जाने कितनी उड़ान बाकी है- राजेश रेड्डी SHARE: AddThis Sharing Buttons Share to FacebookShare to TwitterShare to WhatsAppShare to PinterestShare to TelegramShare to Email 0 यदि आपकी गर्दन या पीठ पर पैपीलोमा हैं तो इसका अर्थ है आपका शरीर... यदि आपकी गर्दन या पीठ पर पैपीलोमा हैं तो इसका अर्थ है आपका शरीर... पैपीलोमा सुबह तक सूख जाएंगे, हेल्मिन्थ बाहर आ जाएंगे, यदि आप लेंगे 15 ग्राम पैपीलोमा सुबह तक सूख जाएंगे, हेल्मिन्थ बाहर आ जाएंगे, यदि आप लेंगे 15 ग्राम जाने कितनी उड़ान बाकी है ! इस परिंदे में जान बाकी है !! जितनी बाटनी थी,बट चुकी ये जमी ! अब तो बस आसमान बाकी है !! अब वो दुनिया अजीब... ग़ज़ल यानी दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती मै जहा हू सिर्फ वही नहीं, मै जहा नहीं हू वहा भी हू - राजेश रेड्डी मौके को निकल जाने दिया - राजेश रेड्डी जाने कितनी उड़ान बाकी है ! इस परिंदे में जान बाकी है !! जितनी बाटनी थी,बट चुकी ये जमी ! अब तो बस आसमान बाकी है !! अब वो दुनिया अजीब लगती है ! जिसमे अमनो-अमन बाकी है !! इम्तिहा से गुजर के क्या देखा ! एक नया इम्तहान बाकी है !! सर कलम होंगे कल यहाँ उनके ! जिनके मुह में जुबान बाकी है !!

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Saturday 25 April 2020

Faiz Ahmad Faiz ( Nazm )


फैज़ अहमद फैज़ 


फैज़ अहमद फैज़ एक मशहूर शायर, पत्रकार, सैनिक, कई सारी भाषाएँ के जानकार थे | इनका जन्म 13 फरवरी 1911 काला कादर सियालकोट शहर (ब्रिटिश भारत) में हुआ था | फैज़ ने आधुनिक उर्दू शायरी को एक नयी उड़ान दी | फैज़ कई सारे दबे कुचले लोगो की आवाज बने जिसके कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा | फैज़ अहमद फैज़ की साम्यवादी सोच और बयानों के कारण उन्हें इस्लाम के खिलाफ भी बताया गया | इनकी शायरीयों में जिंदगी की कश्मकश और नाइंसाफी के ख़िलाफ़ बग़ावत अक्सर मिलती थी | 20 नवम्बर 1984  को वो दिन आया जिस दिन उर्दू शायरी का एक बड़े सितारे ने इस दुनिया से किनारा कर लिया | इनकी प्रमुख़ रचनाएँ बोल के लब आज़ाद है तेरे,  रकीब से, मुझसे पहली सी मोहब्ब्त मेरे मेहबूब ना मांग, बहार आयी, गुलो में रंग भरे बादे-नौबहार चले आदि हैं | 

आज इस पोस्ट में मैं इनकी कुछ ग़ज़लें पेश कर रहा हुँ -


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रक़ीब से !

आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिस ने इस दिल को परी-ख़ाना बना रक्खा था
जिस की उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हम ने
दहर को दहर का अफ़्साना बना रक्खा था

आश्ना हैं तिरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उस की मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवाँ गुज़रे हैं जिन से उसी रानाई के
जिस की इन आँखों ने बे-सूद इबादत की है

तुझ से खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिन में
उस के मल्बूस की अफ़्सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे बरसा है उसी बाम से महताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है

तू ने देखी है वो पेशानी वो रुख़्सार वो होंट
ज़िंदगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हम ने
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें
तुझ को मालूम है क्यूँ उम्र गँवा दी हम ने

हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़म-ए-उल्फ़त के
इतने एहसान कि गिनवाऊँ तो गिनवा न सकूँ
हम ने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तिरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ

आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिरमान के दुख-दर्द के मअ'नी सीखे
ज़ेर-दस्तों के मसाइब को समझना सीखा
सर्द आहों के रुख़-ए-ज़र्द के मअ'नी सीखे

जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिन के
अश्क आँखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
ना-तवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तोले हुए मंडलाते हुए आते हैं

जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाह-राहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
आग सी सीने में रह रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है




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