दोस्तों शेरो को शख़्सियत देने वाले राहत साहब खासकर सियासती और रूमानी शेरो के लिए जाने जाते हैं | अपनी आग उगलती शायरी के लिए बेहद लोकप्रिय राहत साहब आम आदमी के मसलों को महफ़िलो, मुशायरों में जिस ज़िंदादिली से गढ़ते थे उसे कोई नहीं भूल सकता | राहत साहब जो आग लेकर पैदा हुए थे वो आग हर किसी शायरों में मिलना मुश्किल हैं | अभी हाल ही में राहत साहब ने ख़ामोशी से इस दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन वो अब भी अपने कलम के ज़रिये हमारे बीच हमेशा ज़िंदा रहेंगे | आपने उनके बहोत से शेरो को उनके मुशायरो में सुना होंगा लेकिन आज मैं इस पोस्ट के जरिए आपको उनकी असली शायरी, उनके कीमती शेर आपके सामने पेश कर रहा हूँ तो मुलाहिज़ा फरमाएं -
सफर की हद हैं वहां तक की कुछ निशान रहे
चले चलो की जहाँ तक ये आसमान रहे
ये क्या उठाये कदम और आ गयी मंज़िल
मज़ा तो तब है के पैरों में कुछ थकान रहे
अब ना ही मैं हूँ ना बाकि हैं ज़माने मेरे
फिर भी मशहूर हैं शहर में फ़साने मेरे
ज़िंदगी हैं तो नए ज़ख्म भी लग जायेंगे
अब भी बाकि हैं कई दोस्त पुराने मेरे
हाथ खाली हैं तेरे शहर से जाते जाते
जान होती तो मेरी जान लुटाते जाते
हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे
कम-से-कम राह के पत्थर तो हटाते जाते
मैं अंधेरों से बचा लाया था अपने आप को
मेरा दुःख ये है मेरे पीछे उजाले पड़ गए
ताक पर बैठा हुआ बूढ़ा कबूतर रो दिया
जिस में डेरा था उसी मस्जिद में ताले पड़ गए
मैं लाख कह दूँ कि आकाश हूँ ज़मीं हूँ मैं
मगर उसे तो ख़बर है की कुछ नहीं हूँ मैं
अजीब लोग हैं मेरी तलाश में मुझ को
वहां पे ढूंढ रहे हैं जहाँ नहीं हूँ मैं
चिरागों को उछाला जा रहा हैं
हवा पर रौब डाला जा रहा हैं
न हार अपनी न अपनी जीत होगी
मगर सिक्का उछाला जा रहा हैं
नए सफ़र का ऐलान भी नहीं होता
तो ज़िंदा रहने का अरमान भी नहीं होता
तमाम फूल वही लोग तोड़ लेते हैं
वो जिनके कमरों में गुलदान नहीं होता
तेरी हर बात मोहब्बत में गवारा कर के
दिल के बाजार में बैठे हैं ख़सारा कर के
आते जाते हैं कई रंग मेरे चेहरे पर
लोग लेते हैं मज़े ज़िक्र तुम्हार कर के
अपनी पहचान मिटाने को कहा जाता हैं
बस्तियां छोड़ कर जाने को कहा जाता हैं
पत्ते रोज़ ही गिरा जाती हैं जहरीली हवा
और हमसे पेड़ लगाने को कहा जाता हैं
ज़िहालतो के अंधेरें मिटा कर लौट आया
मैं आज सारी किताबे जला लौट आया
वो बैठी अब भी रेल में सिसक रहीं होगी
मैं अपना हाथ हवा में हिला कर लौट आया
ज़मीं भी सर पे रखनी हो तो रखो
चले हो तो ठहर जाने का नहीं
सितारें नोंच कर ले जाऊँगा मैं
खाली हाथ घर जाने का नहीं
मुश्किल से हाथों में खज़ाना पड़ता हैं
पहले कुछ दिन आना-जाना पड़ता हैं
खुश रहना आसान नहीं हैं दुनियां में
दुश्मन से भी हाथ मिलाना पड़ता हैं
फिर उसी गली की तरफ ख़ुद-ब ख़ुद उठे हैं कदम
जहाँ रोज़ नये ज़ख्म खा के आते हैं
पराई आग बुझाने को जा रहे हैं लोग
अभी सब अपनी हथेली जला के आते हैं
No comments:
Post a Comment